मीर तक़ी मीर की ग़ज़ल 'क्या कहूं तुमसे मैं कि क्या है इश्क़

Ishraad-


क्या कहूं तुमसे मैं कि क्या है इश्क़
जान का रोग है, बला है इश्क़

इश्क़ ही इश्क़ है, जहां देखो
सारे आलम में, फिर रहा है इश्क़

इश्क़ माशूक़, इश्क़ आशिक़ है
यानी अपना है, मुब्तिला है इश्क़

इश्क़ है, तर्ज़-ओ-तौरे-इश्क़ के तईं
कहीं बन्दा, कहीं ख़ुदा है इश्क़

गर परस्तिश ख़ुदा की साबित है
किसू सूरत में हो, भला है इश्क़

दिलकश ऐसा कहां है, दुश्मने-जां
मुद्दई है ये, मुद्दआ है इश्क़

है हमारे भी तौर का आशिक़
जिस किसी को कहीं हुआ है इश्क़

कोई ख़्वाहां नहीं मुहब्बत का
तू कहे जिंसे-नारवा है इश्क़

'मीर' जी ज़र्द होते जाते हो
क्या कहीं तुमने भी किया है इश्क़