Kumar Ananad
रीख़ आखिरी थी, दिसंबर का महीना
मुझे याद है आज भी, तेरा यूं मुंह मोड़ के जाना
बोली थी अब तू मेरी ज़िन्दगी का हिस्सा नहीं
और इससे आगे है मुश्किल कुछ बताना
कबीर-सा था ये दिल सगीर-सी थी आरज़ू
जब फैसला मैंने तेरा जाना
हमें हसरत कहां थी, हमनवा होने की
हम तो चाहते थे, साथ तेरा निभाना
बेतौफ़ीक़ बन के आयी, ज़िन्दगी की थी तू शीतल बहार
आलम, हुस्न और साकारा, हर तकलीफ-ए-तजल्ली की थी तू हर्जाना
एक बार भी नहीं सोचा, होगा कैसे गुज़ारा
छोड़ गए तो अब कौन होगा सहारा
पहले सम्भला फिर बरसा, फिर ये दिल रो रो के हारा
ये कैसा फ़लसफा़ है, तकलीफ़ दह हो ही जीना
ग़ुरबत हो की अमीरी हर पल था तेरी यादों का नज़राना
मुझे याद है ऊंची डगर की कुछ यादें
झुक के जब मैंने तेरा वो झुमका छुआ था
उस राह का हर गुलमोहर झूमा था
और फिर ये मुकाम आया कि रहे जुड़ा हो जाना
दिल में छुपा ले दरिया तो डूबने का डर नहीं रह जाना
आसमां आंखों में भर लेने से, उड़ कर गिरने का डर ख़त्म नहीं हो जाना
फिर भाग किससे रहे और क्यों मुमकिन नहीं ठहर जाना
ए ज़िन्दगी फिर भी तू ने बहुत कुछ है दिया उसका इस दिल से है शुकराना